राजा रघु की कथा Raja Raghu ki katha

राजा रघु की कथा Raja Raghu ki katha 

हैलो नमस्कार दोस्तों आपका बहुत-बहुत स्वागत है, आज के हमारे इस लेख राजा रघु की कथा (Raja Raghu ki katha) में। दोस्तों इस लेख के माध्यम से आप राजा रघु की कथा पड़ेंगे।

जिसमें आप जानेंगे कि राजा रघु कौन थे, राजा रघु के माता पिता का नाम क्या था और राजा रघु के वंशज कौन थे, तो आइए दोस्तों शुरू करते हैं, यह कथा राजा रघु की कथा:-

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राजा रघु की कथा


राजा रघु कौन थे Raja raghu kon the 

इस संसार में कई ऐसे प्राचीन छत्रिय कुल है, जिनकी गाथा उस कुल में जन्म लेने वाले महापुरषो के कर्मो के द्वारा अमर हो गई है। ऐसा ही एक कुल था "रघुकुल"

रघुकुल या रघुवंश एक महान प्रतापी सम्राट के नाम पर प्रचलित हो गया था। और उस सम्राट का नाम था "राजा रघु" राजा रघु का जन्म सूर्यवंशी कुल में हुआ था। उनके पिता का नाम महाराज कुकस्थ था।

राजा रघु के महान कार्यों के कारण ही इस वंश का नाम रघुवंश पड़ गया। रघुवंश का अर्थ होता है रघु के वंशज। रघुवंश शुरू से ही

त्याग, तप, करुणा, प्रेम, दया वचनपालन तथा शौर्य का प्रतीक रहा है। रघुवंशकाव्य में राजा रघु तथा उनके कुछ वंशज का वर्णन मिलता है। 

राजा रघु के माता पिता का क्या नाम था Raja Raghu ke Mata Pita ka kya naam tha 

राजा रघु इक्ष्वाकु कुल के महान राजा थे। इनकी महानता दयालुता, प्रेम पराक्रम आदि के कारण इस कुल को रघुकुल कहा जाता है।

और स्वयं भगवान श्रीराम अपने आप को रघुवंशी कहते हुए गर्व महसूस करते है। ऐसे महान राजा रघु के पिता का नाम महाराज दिलीप था।

जिनकी कई पौराणिक गाथाएँ तीनों लोको में विख्यात है। राजा रघु की माता का नाम सुदक्षिणा था। जो महान तपस्वी तथा पतिव्रता नारी थी। 

राजा रघु की कथा Raja Raghu ki katha 

राजा रघु एक महादानी, महापराक्रमी और प्रजावत्सल राजा थे। वे अपनी प्रजा को अपने पुत्रों के समान मानते थे इसलिए उनकी प्रजा भी अपने राजा से अत्यंत प्रसन्न रहा करती थी।

राजा रघु के द्वार से कोई खाली हाथ नहीं जाता था। राजा रघु की दानी प्रवृति तीनों लोकों में विख्यात थी। उनकी दानी प्रवृत्ति की कई प्रकार की कथाएँ प्रचलित हैं। उनमें से एक कथा का वर्णन यहाँ पर किया गया है:-

एक बार राजा रघु ने अपने राज में यज्ञ करवाया तथा इसके पश्चात समस्त ब्राह्मणों को उत्तम भोजन तथा उपहार बांटे गए राजा रघु ने इस यज्ञ में दिल खोलकर दान किया।

जिससे राजा रघु का संपूर्ण राजकोष खाली हो गया। राजा रघु के पास उनके वस्त्रों के अलावा और कुछ नहीं था। तभी राजा रघु के पास ऋषि वरतन्तु के शिष्य कौत्स आये। कौत्स ने जब राजा रघु की यह दशा देखी

तो वह मन में संकोच करने लगे राजा रघु उनकी इच्छा कैसे पूरी करेंगे वे तो यज्ञ में अपना सर्वस्व दान कर चुके हैं। राजा रघु ने कौत्स का आदर सत्कार किया और उन्हें आसन पर विठाया

और पूछा हे! ऋषि वरतन्तु शिष्य कौत्स बताइए मैं आपकी किस प्रकार से सेवा कर सकता हूँ, आप जो भी आज्ञा करेंगे मैं उसे अवश्य पूर्ण करूंगा।

तब कौत्स ने कहा नहीं राजन मेरी कोई भी इच्छा नहीं है मैं आपसे कुछ भी नहीं चाहता हूँ, मैं तो बस आपके दर्शन के लिए ही आया था।

तब राजा रघु ने उत्तर दिया हे! कौत्स चारों दिशाएँ साक्षी है, राजा रघु के द्वार से कोई भी ब्राह्मण खाली हाथ कभी भी नहीं गया।

आप नि:संकोच अपने आने का प्रयोजन बताइए। हम उसे अवश्य पूर्ण करेंगे। ऋषि वरतन्तु शिष्य कौत्स ने कहा हे! राजन मेरी शिक्षा पूर्ण हो चुकी थी

इसलिए मैंने अपने गुरुवर वरतंतु से गुरु दक्षिणा मांगने के लिए कहा किंतु गुरुवर वरतंतु ने गुरु दक्षिणा लेने से मना कर दिया और कहा तुम्हारी सेवा ही मेरे लिए गुरु दक्षिणा है। मेरे बार-बार आग्रह करने पर 

गुरुवर वरतंतु को क्रोध आ गया और उन्होंने कहा कि मैंने तुम्हें 14 विद्या सिखाई है, इसलिए मुझे 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएं ला कर दो।

इसलिए हे! राजन मैं आपके पास 14 करोड स्वर मुद्राओं के उद्देश्य से आया था। किंतु आपने तो यज्ञ में अपना सर्वस्व दान कर दिया है।

तब राजा ने कहा हे! ऋषि वरतन्तु शिष्य कौत्स आप तनिक भी चिंता ना करें आपकी इच्छा अवश्य पूर्ण हो जाएगी आप मुझे केवल तीन दिवस का समय दीजिए

और तब तक के लिए आप मेरे राज महल में रहकर मेरा आतिथ्य स्वीकार कीजिए। ऋषि वरतन्तु शिष्य कौत्स राजा रघु के महल में आराम करने लगे।

राजा रघु ने अपने मंत्री को बुलाया और कहा कि यज्ञ में सभी राजाओं ने हमें कर दिया था किंतु कुबेर भी कैलाश पर्वत पर रहते हैं और यह हमारे राज्य के अधीन है,

इसलिए कुबेर को भी कर देना चाहिए यदि कुबेर कर नहीं देते हैं तो कुबेर पर आक्रमण करने की तैयारी की जाये। राजा रघु ने अपना दिव्य रथ तैयार किया

और कहा जब तक मैं ऋषि वरतन्तु शिष्य कौत्स की इच्छा पूरी नहीं कर देता तब तक मैं इस रथ पर से पैर जमीन पर नहीं रखूंगा।

राजा रघु रात होने के कारण उस रथ पर ही सो गए। किन्तु सुबह राजा रघु को यह समाचार मिला कि उनका राज्यकोष स्वर्ण मुद्राओं से भरा हुआ है अर्थात रात में कुबेर ने स्वर्ण की वर्षा की थी।

राजा रघु ने ऋषि वरतन्तु शिष्य कौत्स से कहा आप यह सभी स्वर्ण मुद्राएँ ले जाइए। किन्तु ऋषि वरतन्तु शिष्य कौत्स बोले हे! राजन मैं तो एक ब्राह्मण पुत्र हूँ मुझे अधिक धन की आवश्यकता नहीं है।

मुझे केवल 14 करोड स्वर्ण मुद्राएं ही चाहिए, इससे एक भी अधिक मुद्रा मुझे नहीं लेना है। तब राजा रघु ने ऋषि वरतन्तु शिष्य कौत्स

को 14 करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ देदी तथा बाकी सभी धन ऋषि-मुनियों और ब्राह्मणों में बांट दिया। इस प्रकार से राजा रघु ने अपनी दानी प्रवृत्ति को बनाए रखा।

राजा रघु की वंशावली Raja raghu ki vanshavali 

राजा रघु महाराज कुकस्थ के पुत्र थे किन्तु अन्य पुराणों तथा ग्रंथो में राजा दिलीप को रघु का पिता बताया गया है। उस समय तक इस वंश को इक्षवाकु वंश कहा जाता था। राजा रघु के अत्यंत तेजस्वी

और पराक्रमी नरेश होने के कारण इस वंश का नाम रघुवंश हो गया। राजा रघु के पुत्र प्रवृद्ध हुए, और प्रवृद्ध के पुत्र शंखण थे। शंखण के पुत्र का नाम सुदर्शन था। सुदर्शन के पुत्र हुए अग्निवर्ण।

अग्निवर्ण के पुत्र शीघ्रग और शीघ्रग के पुत्र मरु हुए, और मरु के पुत्र प्रशुश्रुक थे। प्रशुश्रुक के पुत्र का नाम राजा अम्बरीष था। तथा अम्बरीष के पुत्र का नाम नहुष। नहुष के पुत्र ययाति और ययाति के पुत्र नाभाग थे।

नाभाग के पुत्र का नाम था महाराज अज जिनका युद्ध रावण से हुआ। महाराज अज के पुत्र दशरथ थे और दशरथ के ये चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न उत्पन्न हुए।

दोस्तों इस लेख में आपने राजा रघु कौन थे, राजा रघु की कथा (Story of king Raghu) पड़ी। आशा करता हुँ, आपको यह लेख अच्छा लगा होगा।

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